Books of Acharya Narayan Shastri Kankar
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यह पुस्तक छन्द-अलङ्कारों के प्रारम्भिक शिक्षार्थियों के लिये लिखी गयी है।इसमें काव्य में अलङ्कारों का स्थान, महत्त्व, उपयोग आदि विषय भी संक्षेप में, पर सार-गर्भित सरल भाषा में समझा दिये हैं। लघु-गुरु तथा मात्रा गिनने तथा लिखने की विधि भी इसमें बतायी गयी है। इस छोटी सी पुस्तक में सौ-सवासौ शीर्षकों का विषय समाविष्ट करके गागर में सागर भरने का सफल यत्न किया गया है।
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हमारे जनतान्त्रिक स्वतन्त्रभारत में आये दिन निर्वाचन होते ही रहते हैं चाहे वे विधानसभा के हों, संसद् के हों या नगर पालिका के हों। जनता ही अपने पर शासन करने के लिये अपने में से ही जनों को चुनती है। ये ही जननायक होते हैं। निवार्चित होने से पूर्व ये भी जनता को अपनी ओर से सुख-सुविधा की व्यवस्था करने के लिये नाना प्रकार के आश्वासन देते हैं। जनता अपने मताधिकार का प्रयोग करके इनको निर्वाचित करती है। निर्वाचित करके इनका अभिनन्दन करने के साथ इनको अपने कत्र्तव्यों का स्मरण कराने के लिये ही इस ‘सुवर्ण-नक्षत्र-मालिका’ का प्रणयन किया गया है। इससे पूर्व ऐसी आकर्षक उद्बोधनमयी कृति कहीं दृष्टिगोचर नहीं हुई और न श्रवणगत ही हुई।नवनिर्वाचित जननायकों के शुभाभिनन्दन-हेतु यह अद्वितीय अनुपम उपहार है। यह मालिका अदृष्टपूर्वा, अति मञ्जुला,अम्लानि-शीला सदा सुगन्धा, नेत्राभिरामा और मनोज्ञा होने से अद्वितीय है।
पृष्ठ १६, मूल्य १०/-
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‘श्रीरामस्तव-राज:’ के सदृश विरचित इस अभिनव च्च्श्रीशिक्षक – स्तव – राज:ज्ज् में शिक्षक का स्तवन ही २० श्लोकों में किया गया है और २१ वें श्लोकमें इस स्तवराज की फल-स्तुति बतायी गयी है। यह स्तवराज नित्य पाठोपयोगी है क्योंकि यह सकल-विद्या-सिद्धि-दायक है। इस स्तवराज में प्रारम्भ में इसकी पाठविधि, विनियोग, करन्यास, हृदयादि-षडङ्गन्यास और ध्यानविधि भी प्रस्तुत कर दी गयी है। हिन्दी में रूपान्तरण के साथ उपलब्ध होने से तो संस्कृत से अपरिचित व्यक्ति भी इससे अवश्य लाभान्वित होंगे- ऐसी आशा की जा सकती है। इस स्तवराज के सभी श्लोक अनुष्टुप् छन्द में हैं और सरलतम संस्कृत में होने से सुबोध्य हैं।
पृष्ठ १२, मूल्य १०/-
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श्रीमद्-भागवत-गीता की अनुकृति में यह गीता भी अट्ठारह अध्यायों में विरचित है और सर्वथा अद्वितीय अनुपम है। श्रीमद्भागवत गीता में जहाँ धृतराष्ट्र, सञ्जय, अर्जुन और श्रीकृष्ण पात्र हैं- वहाँ इस श्रीमद्-बाबुदेव –गीता में धृतराष्ट्र के स्थान पर देवदत्त, सञ्जय के स्थान पर यज्ञदत्त, अर्जुन के स्थान पर शिष्य और श्रीकृष्ण के स्थान पर गुरु पात्र हैं। श्रीकृष्ण जहाँ अर्जुन को ज्ञान, योग और कर्म का उपदेश देकर उसे उसके कर्म में प्रवृत्त करते हैं, वहाँ गुरु इस श्रीमद्- बाबुदेव –गीता में शिष्य को श्री बाबुदेव की असीम शक्ति का परिचय देते हुए नानारूप में उसकी महिमा का वर्णन करते हैं और अपने कार्य की सिद्धि के लिये उसको प्रसन्न करने के अचूक उपाय भी बताते हैं। संस्कृत पद्यों में प्रस्तुत/ हिन्दी-अंग्रेजी-रूपान्तर-सहित/ सर्वथा अनुशीलनीय/ रोचक काव्य हिन्दीरूपान्तरकर्त्री- श्रीमती इन्दुशर्मा, एम.ए. शिक्षाशास्त्रिणी/ अंग्रेजी रूपान्तरकार वैद्य श्रीअसितकुमार पाँजा M.D.,Ph.D. (Ayu.)
पृष्ठ ११६, मूल्य १२५/-
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चतुर्थ निर्वाचन में विजयश्री प्राप्त विनायकों के अभिनन्दनार्थ विरचित २५ संस्कृत श्लोकों की यह एक लघु पुस्तिका है जो हिन्दी-अंग्रेजी रूपान्तरण के साथ प्रस्तुत की गयी है। इस पुस्तिका में सन् 1968 में जो चिन्तनीय स्थिति चर्चित की गयी थी- वह आज भी तथा अवस्थित है।
पृष्ठ १७, मूल्य १०/-
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स्वदेशी वेशभूषा,धर्म और संस्कृति के प्रति जिस प्रकार सुदृढ आस्था उत्पन्न हो ,उस प्रकार का इसमें अधिकाधिक प्रयत्न किया गया है। जहाँ दुर्नीति की निन्दा करके सन्नीति का अनुसरण करने की प्रेरणा दी गयी है,वहाँ उत्कोच,वृथा आन्दोलन ,हडताल ,महँगाई ,भ्रष्टाचार,कर्त्तव्य-हीनता,श्रमिक- शोषण, महिला- प्रधर्षण,दल-परिवर्तन,राष्ट्रिय- सम्पत्ति का विनाश — इत्यादि प्रगति- बाधक दुष्कृत्यों का परित्याग करने के लिये पर्याप्त ध्यान आकृष्ट किया गया है।समाजवाद की उपयोगिता दिखा कर आर्थिक, राजनैतिक ,धार्मिक और चारित्रिक स्थिति को सुधारने के लिये मुहुर्मुहुःस्मृति करायी गयी है। शिक्षा, भाषा और लिपि के विषय में स्वदेशिता अपनाने के लिये पूर्ण बलाधान किया गया है।
राजस्थान शिक्षामन्त्री जी की भूमिका और राजस्थान मुख्यमन्त्री जी की शुभाशंसना से अलङ्कृत/हिन्दी में अनुवाद सहित/नैतिक शिक्षोपयोगी/ रोचक मुक्तक काव्य
पृष्ठ १४०, मूल्य १६०/-
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मानसिक प्रदूषण को ही सब प्रकार के अनर्थों का मूल मानतेे हुए उसी को उखाड़ फैंकने की दिशा में इस ‘राष्ट्र-स्मृति:’ की अवतारणा हुई है। ऋषि-मुनि-प्रणीत स्मृतियों की शृङ्खला में यह ‘राष्ट्रस्मृति:’ सर्वथा एक अभिनव ही कड़ी है। इसके प्रचार-प्रसार से व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और समस्त विश्व का कल्याण सम्भव है। नैतिकशिक्षोपयोगिनी राष्ट्रिय सद्भावनाओं से ओतप्रोत हिन्दी-अंग्रेजी अनुवाद-सहित/हिन्दी- रूपान्तरण-कर्त्री- श्रीमती इन्दुशर्मा /अंग्रेजी रूपान्तरण-कर्त्ता- प्रो.श्रीजी.एन.शर्मा काङ्कर
पृष्ठ १८२ , मूल्य ४८०/-
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‘खोला-हनूमन् ! भगवन् !! नमस्ते’ जैसा कि नाम से विदित है यह पुस्तिका श्रीरामदूत हनुमान् जी महाराज की स्तुति के रूप में है। जयपुर में लक्ष्मण डूँगरी के पीछे दिल्ली बाई पास रोड पर विराजमान खोला के हनुमान् जी की स्तुति में हिन्दी अर्थ सहित यह संस्कृत पद्य काव्य है।
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हिन्दी में नैतिक शिक्षोपयोगिनी मनोरम १२५ लघुकथाओं का संकलन । जैसा कि नाम से सुस्पष्ट है, इस पुस्तक में संस्कृत कथायें नैतिक शिक्षोपयोगी सम्मिलित की गयी हैं। ये सभी छोटी छोटी कथायें हैं। कथा से मिलने वाली शिक्षा कथा के अन्त में पद्य में बता दी गयी है।
पृष्ठ १२६ , मूल्य २५०/-
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इसमें १. माता मिलिता २.वैमातृकं वात्सल्यम्, ३.पुनरावृत्तिः, ४. न्यायकारी निदेशकः, ५.उत्कोचः पतिव्रता पत्नी च, ६. दुर्दान्तः दस्युराजः, ७.मध्यस्थता, ८.धन्यः गृहस्थाश्रमः, ९.श्रीमान् शास्त्री महोदयः, १०. कर्त्तव्य-परायणः द्राक्तरः, ११.शौर्यस्य पुरस्कारः, १२. प्रक्षिप्तम् अपि पुनः प्राप्तम् , १३.छिन्ने मूले नैव शाखा न पत्रम् , १४.परिवर्त्तनम् , १५, प्रयाग प्रसादः –ये पन्द्रह कथायें हैं।
इसकी भूमिका में राजस्थान सरकार के शिक्षामन्त्री पं. श्री दामोदरदास जी आचार्य ने लिखा है कि –‘‘आज के विकृत वातावरण में सदाचारिता की ओर उन्मुख करने वाली नैतिकशिक्षोपयोगिनी अश्लीलता से सर्वथा वर्जित इन कथाओं का उपयोग सभी पाठक पाठिकायें निःसङ्कोच कर सकती हैं। सामान्य हिन्दी से परिचित भी इन कथाओं से लाभान्वित हो सकते हैं।”
इस पुस्तक का समर्पण राजस्थान के म.म.राज्यपाल दादा श्री वसन्तराव पाटिल महानुभाव को किया गया और उन्होंने ही इसका विमोचन राजभवन में दि. ४।१०।१९८७ को किया।
पृष्ठ ८०, मूल्य १५०/-
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इसमें ये नौ नाटक हैं—१. कर्त्तव्य-परायणता, २. स्वातन्त्र्य-यज्ञाहुतिः, ३.कुणालस्य कुलीनता, ४.धनिक-धूर्त्तता, ५.सुहृत्समागमः,६. स्वामिभक्ता पन्नाधात्री ७.प्रतिभा-चमत्कारः,८.उदार-मनाःभामाशाहः,९.गुरु-दक्षिणा। प्रत्येक नाटक के प्रारम्भ में पात्र-परिचय, कथा-वस्तु,चरित्र-चित्रण और उद्देश्य सरल सुबोध संस्कृत में ही दिये गये हैं।
राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर की त्रैमासिक संस्कृत पत्रिका स्वर-मङ्गला के वर्ष २,अङ्क ४ में पृष्ठ ६९ से७२ तक में प्रो.डॉ.पुष्करदत्त शर्मा जी की विस्तृत समीक्षा छपी है। इस प्रकार राजस्थान संस्कृत अकादमी जयपुर की ‘नवोन्मेषः ’ पुस्तक में भी पृष्ठ ५६ से ६४ तक ‘संस्कृत –नवरत्न – सुषमायास्त्रीणि रत्नानि’ शीर्षक में कर्त्तव्य-परायणता, धनिक-धूर्त्तता और प्रतिभा –चमत्कारः इन तीन नाटकों की विस्तृत विवेचना प्रकाशित हुई है। विवेचनकर्त्ता हैं केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ जयपुर में साहित्य-विभाग के अध्यक्ष डॉ.श्रीजगन्नाथ पाण्डेय।
पृष्ठ ९५, मूल्य १५०/-
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इसमें १. स्वदेश-प्रेम, २. प्रेम- परीक्षा, ३. नन्द-दीक्षा, ४ भक्तराज-चन्द्रहासः,५. अशोक-पराजयः,६.वन्दी चन्द्रगुप्तः,७.प्रत्युत्पन्न-भतिः नापितः, ८. ताडन-भयम्,९. पशु-कल्याणम् ये नौ नाटक हैं। प्रत्येक नाटक के पूर्व में उसके पात्रों का परिचय उसकी कथा-वस्तु,उसके पात्रों का चरित्र-चित्रण और उद्देश्य भी साररूप में हिन्दी में दे दिया राजस्थान के शिक्षामन्त्री श्री बी.डी. कल्लाजी ने लिखा है—‘‘एकाङ्कि-संस्कृत-नवरत्न-सुषमा” अवश्य ही भाषा की दृष्टि से सर्वथा सुबोध और वाचन की दृष्टि से सर्वत्र सरल है। दर्शक और वाचक पर अपनी सरसता की मुद्रा तो ये नाटक छोड ही देते हैं। अश्लीलता से वर्जित और नैतिक शिक्षाओं से संवलित होने से आबाल-वृद्ध, स्त्री-पुरुष , युवक-युवतियाँ और बालक –बालिकायें निःसङ्कोच एक साथ अभिनेय को देख सकती हैं। स्वल्प समय में स्वल्प सामग्री से अभिनेय होने के कारण इन नाटकों की उपादेयता और भी अधिक बढ जाती है।” यह पुस्तक राजस्थान संस्कृत अकादमी और राजस्थान सस्कार से पुरस्कृत है ।
पृष्ठ १०४ , मूल्य १६०/-
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(नैतिक शिक्षोपयोगी/सरल सुबोध संस्कृत में अभिनेय/ मनोरम एकाङ्की नाटक )
यह पुस्तक ‘एकाङ्कि-संस्कृत-नवरत्न-सुषमा’ और ‘एकाङ्कि-संस्कृत-नवरत्न-मञ्जूषा’ पुस्तक का ही एक मिलाजुला रूप है। इस ‘नाट्य-रत्नावलि:’ में ये तीन नाटक और अधिक सम्मिलित किये गये हैं- १. दर्पदलनम्, २. प्रधानामात्यचयनम् और ३. सतीशिरोमणि: सुशीला। इन तीनों नाटकों के पूर्व भी इनकी कथावस्तु, चरित्र-चित्रण और पात्र-परिचय राष्ट्रभाषा हिन्दी में दे दिया गया है।
इस ‘संस्कृत-नाट्य-रत्नावलि:’ में नाटकों का क्रम इस प्रकार है- १. अशोकस्य पराजय:, २. उदारमना: भामाशाह:, ३. कत्र्तव्य-परायणता, ४. कुणालस्य कुलीनता, ५. गुरु-दक्षिणा, ६. ताडन-भयम्, ७. दर्प-दलनम्, ८. धनिक-धूत्र्तता, ९. नन्द-दीक्षा, १०. पशु-कल्याणम्, ११. प्रतिभा-चमत्कार:, १२. प्रत्युत्पन्नमति: नापित:, १३. प्रधानामात्य-चयनम्, १४. प्रेम-परीक्षा, १५. भक्तराज-चन्द्रहास:, १६. वन्दी चन्द्रगुप्त:, १७. सतीशिरोमणि: सुशीला, १८. सुहृत्समागम:, १९. स्वदेश-प्रेम, २०. स्वातन्त्र्य-यज्ञाहुति:, २१. स्वामिभक्ता पन्नाधात्री।
पृष्ठ २२४ , मूल्य ५००/-
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सरल संस्कृत में लिखे ६० ललित निबन्धों की यह पुस्तक राजस्थान के म.म.राज्यपाल न्यायमूर्ति श्रीमान् अंशुमान सिंह जी को समर्पित की गयी है। इन्होंने इस पुस्तक के सम्बन्ध में अपने सन्देश में लिखा है कि — ‘‘माधुरी में सभी निबन्ध बिना किसी लिङ्ग वर्ग और देश का विचार किये सभी व्यक्ति ,समाज ,देश और विश्व का उपकार करने वाले हैं।सरल संस्कृत लेखन की प्रबल पक्षधरता प्रस्तुत निबन्धों में स्पष्ट दिखाई देती है। संस्कृत के प्रचार-प्रसार के लिये लिखा गया ‘संस्कृत –प्रचार –प्रसारोपयोगी विंशति-सूत्री कार्यक्रम:’ अत्युपादेय बन पडा है। व्याकरण के वैदुष्य़ से गर्भित ‘अभिनव –शब्द-साधकं संस्कृत-व्याकरणम् ’ और ’पाणिनीय –व्याकरणस्य वैशिष्ट्यम्’ ये दोनों निबन्ध शब्द-साधकों के लिये अवश्य मननीय और अनुशीलनीय हैं।’’
राजस्थान सरकार की संस्कृत शिक्षा-मन्त्रिणी डॉ.श्रीमती कमला जी ने इस पुस्तक की भूमिका में अपने विचार इस प्रकार प्रकट किये हैं-‘इन निबन्धों में यत्र तत्र प्रचलित लेखनीय दृष्टि का अनुसरण कर व्यक्ति, समाज ,राष्ट्र,विश्व और स्वयं सर्वोपकारिणी संस्कृतभाषा का भी सुमहान् उपकार किया जा सकता है। ये निबन्ध वेद, दर्शन, व्याकरण , स्वास्थ्य, संस्कृत भाषा, संस्कृति , राष्ट्रप्रेम, सङ्घटन , यात्रा, जीवनी आदि विषयों पर हैं।’
पृष्ठ २२० मूल्य ३००/-
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- (क) इसमें ५५४ ही सूत्र हैं, जब कि मूल ‘लघु-सिद्धान्त-कौमुदी’ में १२७२ सूत्र हैं।
- (ख) तत्काल विषय को जानने के लिये मूल-पाठ को उपयुक्त शीर्षकों से दिखाया गया है।
- (ग) इसमें केवल दैनिक-व्यवहार में आने वाला ही विषय लिया गया हैं।
- (घ) अनुपयोगी रटाई के भार को कम करने के लिये वृत्ति में से उस अंश को हटा दिया है जो सूत्र में आ गया है। सूत्र से ही अर्थ का ज्ञान हो जाने से उसके लिये वृत्ति रख कर उससे रटाई के भार को बढ़ाने से क्या लाभ है ?
- (ङ) मूल पाठ से सम्बन्ध रखने वाली विशिष्ट सूचनाओं को हिन्दी टीका में नीचे दिखा दिया गया है। इसके साथ ही टीका में मूलपाठ में आये हुए सभी शब्दों और धातुओं के रूप भी दे दिये गये हैं।
- (च) सूत्रों के पूर्व में उनकी क्रमसंख्या भी लिख दी है।
- (छ) अन्त में सभी सूत्रों और वात्र्तिकों की अकारादि-क्रम से पृष्ठसंख्या के साथ सूची दी गयी हैं। इससे वाञ्छित सूत्र / वात्र्तिक को ढूँढने में सुविधा होगी।
पृष्ठ ११६, मूल्य ३०/-
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कठिन समझी जाने वाली लघु-सिद्धान्त-कौमुदी की सरलीकृत संक्षिप्त –लघुकौमुदी का यह संज्ञा-प्रकरण विस्तृत विशद-हिन्दी-टीका सहित प्रस्तुत किया गया है। तालिकाओं द्वारा जहाँ विषय स्पष्ट किया गया है- वहाँ विषय भी शीर्षकों में विभक्त कर बताये गये हैं। अभ्यासार्थ अन्त में प्रश्नमाला भी दी गयी है।इसका उपयोग विषय को हृदयङ्गम कराने में अत्यन्त सहयोगी है।
पृष्ठ २८ मूल्य १०/-
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संक्षिप्त-लघुकौमुदी के इस अच् सन्धि-प्रकरण में सरल हिन्दी में प्रत्येक सूत्र का अर्थ बता कर उसे सम्बन्धित उदाहरण में इस प्रकार सङ्गत किया है कि वह अनायास ही हृदयङ्गम हो जाय।पुस्तक में समझाये हुए उदाहरणों के समान ही अन्य उदाहरण भी अभ्यास के लिये साथ ही प्रस्तुत किये गये हैं। अन्त में अभ्यासार्थ प्रश्नमाला में सूत्रों और उनके उदाहरणों के सम्बन्ध में विभिन्न प्रकार के प्रश्न बना कर रक्खें गये हैं। योग्यता बढाने में ये बहुत ही सहायक हैं।
पृष्ठ २४ मूल्य १०/-
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संक्षिप्त-लघुकौमुदी कठिन समझी जाने वाली लघु-सिद्धान्त-कौमुदी का यह सरलीकृत रूप है। इसी के हल् सन्धि-प्रकरण और विसर्ग –सन्धि-प्रकरण की इस पुस्तक के हल्-सन्धि के १८ सूत्रों और विसर्ग-सन्धि के १२ सूत्रों की उदाहरण –सहित सरल हिन्दी में व्याख्या प्रस्तुत की गयी है। मूल उदाहरणों के तुल्य ही अन्य उदाहरण भी अभ्यासार्थ साथ ही दिये गये हैं। अन्त में प्रस्तुत प्रश्नमाला में सूत्रों और उनके उदाहरणों से सम्बन्धित कई प्रकार के प्रश्न दिये गये हैं जिनके अभ्यास से अनायास ही योग्यता बढायी जा सकती है।
पृष्ठ ३२ मूल्य १०/-
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संस्कृत के विख्यात विद्वान् श्री अम्बिकादत्त व्यास की विरचित कालजयी ‘शिवराज-विजय:’ विश्व प्रसिद्ध संस्कृत कृति का यह संक्षिप्तीकरण है। संक्षिप्तीकरण के साथ इसे सरल भी बना दिया गया है। प्रौढ प्राञ्जल संस्कृत में विरचित होने से मूल ‘शिवराज-विजय:’ रोचकतम होने पर भी स्वल्प संस्कृतज्ञों के लिये अनास्वादनीय ही था। वे भी इसका आस्वादन कर सकें – बस इसी उद्देश्य से यह ‘सरल-शिवराज-विजय:’ प्रस्तुत किया गया है।
इसमें मूल कृति के घटनाक्रम को किसी प्रकार की ठेस न पँहुचाते हुए केवल वर्णनों की अधिकता को न्यून करके कवि के ही सरल वाक्यों में इसे संक्षिप्त और सरल बनाया गया है। इसको प्रारम्भ से अन्त तक पढ़ लेने पर पाठक और श्रोता को सम्पूर्ण मूल ‘शिवराज-विजय:’ को आस्वादित करने की इच्छा उत्पन्न हुए विना नहीं रहती है और वह इसके लिये अपने आपको अधिक संस्कृतज्ञ बनाने के लिये प्रेरित होता है, इसमें भी सन्देह नहीं है।
अध्येता की सुविधा के लिये अन्त में पृष्ठानुसार कठिन-शब्दार्थ और टिप्पणी भी दे दी गयी है।
पृष्ठ ७६ , मूल्य ३०/-
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यह ग्रन्थ शाश्वत रहने वाला महत्त्वपूर्ण है। इसके ७७४ पृष्ठों में पाणिनि-प्रोक्त २५१७ उणादि-पदों को अकारादि क्रम से सँजोकर ७५८ सूत्रों से विहित ३०३ प्रत्ययों के संयोग से पाणिनि-निर्दिष्ट प्रकार से ही निरुक्ति बताकर सूत्र निर्देश द्वारा व्युत्पन्न किया गया है। अपनी ओर से डॉ. काङ्कर की बतायी हुई निरुक्ति और व्युत्पत्ति इसमें मिलती है। ब्राह्मण, उपनिषद्, स्मृति, व्याकरण, कोष, निघण्टु, निरुक्त, रामायण, पुराण और महाकाव्यादि में ये उणादि पद कहाँ कहाँ प्रयुक्त हैं- इसका उदाहरण के साथ सन्दर्भ का इस कोष में निर्देश किया है।
पृष्ठ ७७४ , मूल्य २०६/-
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जैसा कि नाम से सुस्पष्ट है इस पुस्तिका में संस्कृत और हिन्दी में संस्कृत के प्रचार और प्रसार के लिये २० सूत्री कार्यक्रम प्रस्तुत किया है। यह ऐसा कार्यक्रम है कि जिसको कार्यान्वित करने में सरकार का एक भी पैसा खर्च नहीं होता, केवल सरकार को अपनी रीति-नीति बदलने के लिये तैयार होना है। इस प्रकार का यह २० सूत्री कार्यक्रम अपने ढँग का एक ही है। इसको बनाने के पीछे संस्कृत के प्रति दृढ लगाव तो कारण है ही, सुदीर्घ अनुभव ने भी इसके निर्माण में सहयोग किया है।
पृष्ठ ८, मूल्य १०/-
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संस्कृत की शिक्षा देने के लिये हिन्दी-संस्कृत में लिखित यह ग्रन्थ एक हजार से भी अधिक पृष्ठों में है और महामहिम राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन् जी सर्वेपल्ली को उनके जन्मदिवस ‘शिक्षकदिवस’ पर सन् १९६५ में समर्पित किया गया था। इसकी भूमिका बिहार के भू.पू. राज्यपाल तथा तत्कालीन लोकसभा-सदस्य डॉ. श्री एम. एस. अणे महानुभाव के द्वारा संस्कृत में लिखी गयी थी जो इस प्रकार है- ‘‘……….अत्र हि जयपुरस्थ-विद्वद्वर्यस्य कवि-शिरोमणि- प्रोफेसर-श्रीनवलकिशोर-काङ्करस्य तनुजनुषा सुविदुषा श्रीमता नारायणशास्त्रि-काङ्करेण मनोवैज्ञानिक-पद्धत्या प्राय: सकल-सरल-सरस-सरणिम् अनुसृत्य सहजम् एव संस्कृत-व्याकरण-साहित्य-तत्त्वं तन्महत्त्वं च याथातथ्येन अवगन्तुम् अनुयन्तुं च राष्ट्रभाषा-माध्यमेन सर्वे एव व्याकरण-विषया: समुपस्थापिता:, सहैव च सोदाहरण-व्याकरण-प्रकरण-प्रकाशनार्थम् अनुवाद-निबन्ध-पत्रादि-लेखन-प्रकारा: अपि नितरां प्रतिपादिता:, अन्यत्र च अनुपलब्ध-प्रायाणि धातु-प्रक्रियारूपाणि विलिख्य तु लेखकेन कृत: प्रशस्ततम: मार्ग: संस्कृतलेखन-कला-जुषां विदुषाम् अपि।
साहित्य-विभागे लेखकेन छन्दोऽलङ्कारादीनां विवेचनं सर्वथा नूतन-पद्धत्या एव प्रदर्शितम्। अद्यावधि अलङ्कारादीनाम् उदाहरणेषु प्राचीनानि एव शृङ्गाररस-प्रधानानि पद्यानि पापठ्यन्ते स्म, परन्तु श्रीकाङ्कर-महोदयेन देशभक्ति-प्रेम-पूरितानि अलङ्कारादीनां नवीनानि उदाहरणानि निर्माय नवीनोऽयं पन्था: प्रदर्शित: स्वतन्त्रभारतस्य विद्यार्थिनां कृते। अनया पद्धत्या साहित्य-ज्ञानेन सहैव छात्रेषु सहजम् एव देशभक्ति: अपि समुदेष्यतीति निश्चप्रचम्।
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जैसा कि नाम से सुस्पष्ट है, इस पुस्तक में १३० संस्कृत कथायें नैतिक शिक्षोपयोगी सम्मिलित की गयी हैं। ये सभी छोटी छोटी कथायें सचित्र हैं। कथा से मिलने वाली शिक्षा कथा के प्रारम्भ में ही ऊपर संस्कृत श्लोक में हिन्दी में अर्थ सहित बता दी गयी है। इन कथाओं से उपार्जित ज्ञान का स्वयं मूल्याङ्कन करने के लिये प्रत्येक कथा के अन्त में दिये गये अभ्यास में ५-५ प्रश्र रक्खे गये हैं।
पृष्ठ १०४ , मूल्य १६०/-
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इसमें शब्द-शक्ति, रस और अलङ्कारों के लक्षण वाक्य के नवीन उदाहरण से उन्हें समझाया है और फिर पाठ्यक्रम में निर्धारित कवियों के पद्य उदाहरण के रूप में उद्धृत करके लक्षण-समन्वय कर दिया है। विद्यार्थियों को दोहा छन्द सहज ही याद हो जाता है, अत: अलङ्कार आदि की संक्षिप्त परिभाषा टिप्पणी के रूप में नवीन दोहों में दे दी है। दोहों की विशेषता यह है कि उसी दोहे में उस अलङ्कार का उदाहरण भी आ गया है।
यही क्रम छन्दों में रक्खा है। पहले गद्य में छन्द का लक्षण समझा दिया है और फिर उदाहरणार्थ ऐसा पद्यांश दिया है जो उस छन्द का उदाहरण होता हुआ उसकी परिभाषा भी बनाता है। इसके अतिरिक्त गद्य एवं पद्य के उद्धरणों में सामयिक प्रेरणा-प्रदायक राष्ट्रियता के भावों के साथ सभ्यता का भी पूरा-पूरा ध्यान रक्खा है।
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यह पुस्तक छन्द-अलङ्कारों के प्रारम्भिक शिक्षार्थियों के लिये लिखी गयी है।इसमें काव्य में अलङ्कारों का स्थान, महत्त्व, उपयोग आदि विषय भी संक्षेप में, पर सार-गर्भित सरल भाषा में समझा दिये हैं। लघु-गुरु तथा मात्रा गिनने तथा लिखने की विधि भी इसमें बतायी गयी है। इस छोटी सी पुस्तक में सौ-सवासौ शीर्षकों का विषय समाविष्ट करके गागर में सागर भरने का सफल यत्न किया गया है।
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यह नैतिक शिक्षोपयोगी कथाओं की अनमोल कृति है। इस पुस्तक का भी सामान्य संस्कृत ज्ञाता रसास्वादन कर सके- इस दृष्टि से इसके वाक्यस्थ पदों में परस्पर सन्धि नहीं की गयी है। व्याकरण द्वारा जहाँ संस्कृत के पदों में सन्धि करना अनिवार्य बताया गया है- वहीं इस पुस्तक में पदों में परस्पर सन्धि की गयी है। समास वाले वाक्य भी लम्बे नहीं हैं और शब्द भी हिन्दी भाषा में प्रयुक्त होने वाले संस्कृत शब्द ही हैं। इससे इसमें बहुत सरलता और स्वाभाविकता आ गयी है। इसकी भाषा को सरल संस्कृत का आदर्श माना जाना चाहिये।
इस पुस्तक में जैसाकि नाम से सुस्पष्ट है पचास कथायें जो कि मौलिक और शिक्षाप्रद होने से तथा अश्लीलता से शून्य होने के कारण सभी आयु के स्त्री-पुरुष, युवक-युवतियाँ और बालक-बालिकायें नि:सङ्कोच एक साथ बैठ कर पढ़ सकती हैं और सुन-सुना भी सकती हैं।
पृष्ठ २५६, मूल्य ५००/-
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यह पुस्तक ‘व्याकरण-साहित्य-प्रकाश’ ग्रन्थ का ही संक्षिप्त रूप है। यह राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर में संस्कृत विभाग के प्रवाचक डॉ. श्री सुधीर कुमार जी गुप्त को समर्पित की गयी है।
पृष्ठ १०४ , मूल्य १६०/-
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३२३१ श्लोकों में विरचित इस महाकाव्य में ये २१ सर्ग हैं। इस महाकाव्य की भूमिका में राजस्थान संस्कृत विश्व विद्यालय के प्रथम कुलपति पद्मश्री-विभूषित म.म.राष्ट्रपति –सम्मानित संस्कृत –मनीषी डॉ.श्री मण्डनमिश्र –शास्त्री जी ने लिखा है—‘अस्य प्रत्येक-सर्गस्य नाम स्वकीय-प्रतिपाद्य-विषयान् दर्शयितुं पूर्णं क्षमं वर्त्तते। सर्गा इमे स्वयमात्मनि सरल-सुबोध –भाषायां लिखितानि ललित-ललितानि खण्ड-काव्यानि सन्ति।एवमेषां सर्गाणां सङ्कलनस्य नाम ‘रचनाभ्युदयं महाकाव्यम्’ सर्वथा सार्थकं वरीवर्त्ति।
यह महाकव्य राजस्थान में संस्कृत शिक्षामन्त्रिणी डॉ.श्रीमती कमला जी को समर्पित किया गया है। उन्होंने इसके सम्बन्ध में अपनी शुभाशंसना में लिखा हैं- ‘‘सुललित सरल संस्कृत में विरचित यह ‘रचनाभ्युदयं महाकाव्यम्’ अनुभव पर आधारित होने से प्रभावी है। परम्परागत विभिन्न छन्दों में उपनिबद्ध होने से यह काव्य गेय और श्रुति-सुखद तो है ही , आज के विकृत वातावरण में वाञ्छित सुधार की आशा जगाने में भी पर्याप्त समर्थ हैं। इस महाकाव्य की समीक्षा राजस्थान संस्कृत अकादमी जयपुर द्वारा प्रकाशित ‘राजस्थान के संस्कृत के प्रमुख महाकाव्य ’ ग्रन्थ में पृष्ठ ३३९ से ३५८ में हुई है।
‘संस्कृत –सौरभ’ कार्यक्रम के अन्तर्गत आकाशवाणी केन्द्र जयपुर से दि० २९-७-२००४ को प्रातः ८.५० पर इस महाकाव्य की प्रसारित नीरक्षीर –विवेकी समीक्षा ‘राजस्थान के संस्कृत – कृतिकार’ ग्रन्थ में पृष्ठ १८८ से १२२ में प्रकाशित हुई है।
पृष्ठ २८९ , मूल्य ५००/-
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संस्कृत के सरल शिवराज-विजयः का हिन्दी में रूपान्तरण/ रूपान्तरकार – वैद्य श्रीरामशर्मा काङ्कर बी.ए.एम.एस.
पृष्ठ ८८, मूल्य २००/-
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संस्कृत की अभिनव संस्कृतकथा का हिन्दी रूपान्तरण रूपान्तरकर्त्री:- श्रीमती इन्दुशर्मा एम.ए शिक्षाशास्त्रिणी
पृष्ठ ८९ , मूल्य २००/-
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संस्कृत में लिखित अभिनव-संस्कृतकथा-पञ्चाशिका पुस्तक का हिन्दी में रूपान्तरण रूपान्तरणकर्त्री: – श्रीमती इन्दुशर्मा शिक्षाशास्त्रिणी
पृष्ठ २५६, मूल्य ५००/-
Thanks a lot for sharing!